(आज पासून 'हिंदू वार्ता' वर हिंदीतून हि लेख वाचायला मिळतील )
(प्रजातांत्रिक व्यवस्था का अनन्यसाधारण महत्व अटल जी के
लिए था,संघ स्वयंसेवक के रूप "राष्ट्र
सर्वोपरि" की विचारधारा अटल जी आत्मसात कर चुके थे)
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एक चारित्र्यवान हिंदू,
राष्ट्रधर्म भक्ती
को अपने अंतरमन में संजो कर औऱ सनातन हिंदू धर्म एवं संस्कृत के मुल्यों का संवाहक
बन जब राजनीती में आता है,
तब उस व्यक्ती
को वही स्थान प्राप्त होता है जो आज आदरणीय अटलबिहारी वाजपेयी जी को प्राप्त है, गांधी और नेहरू परिवार द्वारा भारत के
राजनैतिक नेतृत्व को एकाधिकार मान वंशवाद, परिवारवाद एवं अपने व्यक्तिगत मूल्यों को राष्ट्र से ऊपर मानने वाली मानसिकता
को अटल जी के सक्रिय राजनैतिक प्रवेश ने एक बहोत बड़ी चुनोती प्रस्तुत की, अटल जी मे यह चुनोती दे पाने का सामर्थ्य
तत्कालीन परिस्थितियोने कूट कूट कर भर दिया था, अटल बिहारी वाजयेपी १९४२ में उस वक्त राजनीती में आए, जब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनके भाई २३
दिनों के लिए जेल गए। स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु क्या मुल्य हम हिन्दुस्थानियों को
चुकाना पड़ा है इस बात का ज्ञान युवा अवस्था मे ही अटल जी को हो चुका था, इस कारण उस अर्जित स्वतंत्रता एवं उसके द्वारा प्रदत्त प्रजातांत्रिक
व्यवस्था का अनन्यसाधारण महत्व अटल जी के लिए था, संघ स्वयंसेवक के रूप में "राष्ट्र सर्वोपरि" की विचारधारा अटल जी
आत्मसात कर चुके थे। १९५१ में वाजपेयी जी ने आरएसएस के सहयोग से भारतीय जनसंघ
पार्टी बनाई जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेता शामिल हुए। १९५७ में अटलजी
बलरामपुर संसदीय सीट से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। १९६८ में वो राष्ट्रीय जनसंघ के
राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। यह वो समय था जब पं. दीनदयाल उपाध्याय एवं श्यामाप्रसाद
मुखर्जी के पुण्यप्रताप के बल से भारत की मलिन राजनीती को राष्ट्रनीती में
परिवर्तित करने का प्रयास अटलजी द्वारा होने लगा था।
अटलजी के राजनैतिक जीवन का उद्देश्य क्या था
यह समझने के लिए उनका यह कथन पर्याप्त है कि
"सत्ता का खेल तो चलेगा, सरकारें आऐंगी जाऐंगी, पार्टियां बनेगी बिगड़ेगी, मगर ये राष्ट्र रहना चाहिए यह प्रजातंत्र अमर रहना चाहिए"।
राष्ट्रीयचारित्र्य विहीन राजनीति को इस राष्ट्र का महत्व समझाते हुए, "हिंदुत्व अर्थात राष्ट्रीयत्व" के भाव
से सराबोर अटल जी ने जब
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये...
इस तरह अपने राष्ट्र का मुल्य समझाया तब इस राष्ट्र की राजनीती में, राष्ट्रोद्धार राष्ट्रोन्नती जैसी संकल्पनाएँ
अस्तिव में आने लगी ।
अटल जी अपना राजनैतिक जीवन ऐसे अजातशत्रु की तरह जिये कि उनके प्रबल विरोधियों
को भी उनसे मोह होने लगता था । अटल जी के राष्ट्रवाद का स्तर क्या था?
१९७२ के युद्ध में विपक्ष में होने के बाद भी
अटल जी तत्कालीन सत्तापक्ष के साथ राष्ट्रहित में एक सहयोगी की भूमिका में नजर आए, वहीं नरसिम्हाराव सरकार ने अपने विरोधी
राजनैतिक दल के नेता अर्थात श्री अटलजी को
संयुक्तराष्ट्र सभा में भारत का प्रतिनिधित्व
करने के लिए भेजा,
ऐसे अनगिनत
प्रसंग हैं जहाँ विपक्ष में होने के बाद भी अटल जी ने तत्कालीन सरकार के उन सभी
मुद्दों का समर्थन किया,
जो देशहित में
थे और यही कारण है कि आज विरोधी राजनैतिक दल का प्रत्येक नेता यह निर्विवाद
स्वीकार करता है कि अटलजी की राजनीति का मूलाधार राष्ट्रहित था।
मुझे लगता के भविष्य में इस राष्ट्र की राजनीती
को हिंदुत्व को आधार मानकर ,राष्ट्रनीती में
परिवर्तित करने का प्रयास यदि हो तो अटल जी द्वारा परिभाषित-
"हिन्दू धर्म के
प्रति मेरे आकर्षण का मुख्य कारण है कि यह मानव का सर्वोत्कृष्ट धर्म है। हिंदू
धर्म न तो किसी एक पुस्तक से जुड़ा है और न ही किसी एक धर्म प्रवर्तक से जुड़ा है, जो कालगति के संग असंगत हो जाते हैं। हिन्दू
धर्म का स्वरूप हिन्दू समाज द्वारा निर्मित होता है और यही कारण है कि यह धर्म
युग-युगांतर से संवर्धित और पुष्पित होता जा रहा है।"
-विशाल सुरेश शर्मा,
मलकापूर
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